Tuesday, 23 September 2014

दीपिका पादुकोण और टाइम्स ऑफ़ इंडिया, कपड़ों और भाषा से परे यहाँ सब गुंडे हैं

एक सज्जन ट्रेन में जा रहे थे और सो गए किसी ज़रूरतमंद आदमी ने उनकी जेब से उनका मोबाइल निकाल लिया। जब वह उठे तो बड़ा दुखी हुए मुझसे मांगकर फोन बीवी को लगाया था और फोन उठाते ही उससे बोले

"तुम्हारी गलती से आज मोबाईल चोरी हो गया।
घर आकर बताता हूँ तुझे!"

मेरे कुछ पूछने से पहले खुद ही बताया कि , साहब बीवी ने सुबह पेट भर कर आलू के पराठे खिला दिए तो नीद आगई, न वो पेट भर कर खिलाती न ये नुक्सान होता।

हिन्दुस्तान में हर गलत बात औरतों से शुरू और ख़त्म होती है।लव जिहाद के कारण धर्म के खतरे में आने से लेकर विराट कोहली के रन ना बनाने तक की ज़िम्मेदार सिर्फ महिलाएं ही होती हैं। एक सुन्दर सी पुलिस अफसर को उसका बॉस छेड़ता है तो गलती उस महिला की(अरुणा राय), एक नेशनल शूटर किसी उच्चवर्ग के पुरुष के प्रेम में पड़ कर उससे शादी करती है और वह व्यक्ति धोख़ेबाज निकलता है तो गलती लड़की की (तारा शाहदेव) गलती ऐसे बताई जाती है कि जैसे अरेंज मैरिज में तो कोई झूठ बोलता नही।

पिछले दिनों टाइम्स ऑफ़ इंडिया के और दीपिका पादुकोण के बीच चल रहे विवाद ने हम सबके दिमागों में पल रही उस मानसिकता को उजागर किया जिसमें वह सिर्फ एक वस्तु है। टाइम्स सहित कई अखबार तथा चैनल अपने ऑनलाइन माध्यमों में हीरोइनों के फोटो को सनसनीखेज शीर्षकों के साथ प्रस्तुत कर के ही अपनी दुकान चलाते हैं और जो लोग कल तक बस स्टाल पर कोई राजनितिक पत्रिका उठाने के बहाने से मनोहर कलियाँ या मैक्सिम को कनखियों से देखा करते थे, आज अपने फ़ोन की स्क्रीन पर उसे जी भर कर देख कर खुश होतें हैं।
इस पूरे व्यापर के डिमांड और सप्लाई वाले तर्क के कारण इस पर आपत्ति करने का कोई औचित्य नही है मगर मुझे सबसे ज्यादा हैरानी हुई टाइम्स ऑफ़ इंडिया के एडिटोरियल को पढ़ कर।

एक अभिनेत्री के किसी पुराने विडियो को जिसमे उसके अन्तःवस्त्र गलती से दिख रहे हैं या साडी का आँचल अपनी जगह से हट गया है को आपने ज़ूम कर उसपर लाल घेरा बनाकर आपने उसे खबर बनाकर पेश किया। इस पर जब आपत्ति की हुई तो आपने लिखा की यह तो सुन्दरता का कॉम्पलिमेंट है।
क्या यही कॉम्पलिमेंट आपकी माँ, पत्नी या बहन को दिया जाये तो चलेगा?
इस पर जब फिर से दीपिका ने आपत्ति की और अपने फ़िल्मी किरदारों से अपने निजी जीवन को  अलग जाताया तो टाइम्स की प्रतिक्रिया ऎसी ही थी जैसे कि गली का कोई गुंडा किसी लड़की को छेड़ता है उसे प्रोपोज करता है और लड़की के ना कहने पर उसपर तेजाब फेंकता है या उसके चरित्र को लेकर ऊँगली उठाता है। जो चित्र साथ में टाइम्स ने छापे और जिन शब्दों के साथ कहा कि "हमने आप के और *** की बात तो नही की थी", उन्हें हिंदी में लिखने पर यह ब्लॉग 18+ की श्रेणी में चला जायेगा।

इस देश में एक विडम्बना है कि आप अगर अंग्रेजी बोलना सीख लें फिर बोआ की किताब 'the second sex' और जेन ऑस्टिन की pride and prejudice  पढ़ लें तो आप प्रगतिशील हो गए और इन सबके बीच यदि आपने इंडिया गेट पर ओरी चिरय्या जैसे गाने गा लिए तो फिर आपको एक्टिविस्ट का तमगा मिलना तय है। पिछले साल सोमा जी को याद करिए, कैसे तरुण तेजपाल जी के महिला अधिकारों को एडजस्ट किया था। यही मोहतरमा आसाराम के खिलाफ बगावत का झंडा बुलन्द करे थीं।


किसी का भी पेशा ऐसी चीज़ों की डिमांड करता है जो शायद उसे व्यक्तिगत जीवन में पसंद ना हों। और हर व्यक्ति अपने जीवन में अलग अलग घेरे बना कर रखता है। ऑफिस में बहुत सख्त बॉस प्रेमिका के सामने दयनीय हो सकता है तो सास ससुर के सामने साडी में रहने वाली महिला पति के साथ किसी बीच पर शॉर्ट्स में आराम से घूम सकती है।यह हिप्पोक्रेसी नही अपने अपने कम्फर्ट जोन का मामला है।

कोई भी कोई काम क्यों चुनता है और कैसे करता है इस बात से किसी को कोई समस्या नही होनी चाहिए और किसी के दैनिक जीवन से (विशेष रूप से लड़की के) उसे शर्मिंदा करने वाली बातें ढूंढ कर उसपर झगडा करना कहीं से भी पत्रकारिता नही है। पश्चिम के पपराजी जो घिनौनी चीज़े पत्रकारिता के नाम पर करते हैं उन्ही को हिन्दुस्तान में लागू करने की यह घटिया कोशिश है।(अगर आप को याद हो पिछले साल केट मिडल्टन की छुप कर ली गयी तस्वीरों से उन्हें कैसे शर्मिंदा करा गया था)

टाइम्स ऑफ़ इंडिया का यह आर्टिकल बताता है कि भाषा, बोलचाल, कपड़ों आदि के अंतर के बाद भी लोग अन्दर से एक जैसे ही हैं, घटिया और जंगली।
अपनी ही लिखी कुछ पंक्तियाँ याद आती हैं

"तुम्हारे लिबास
कम ज्यादा
आधे पूरे
चमकते सादा
चाहे जो हों
फर्क नही!
इस शहर की
तहजीब है
तमाशा देखना" -©अनिमेष